गुरुवार, नवंबर 14, 2019

बड़े होने की जद में...

बाबू
बड़े होने की जद में
भूल गए हम तो
कि बचपन भी होता है
गौर करे आदमी तो पाए
जीवन से मरण तक
बस खोता ही खोता है

चलो थोड़ा ठहर जाएं
फिर किसी पानी की छोटी सी धार में
कागज़ की एक बड़ी नाव तैरायें

फिर किन्ही वृद्धों के साथ
पार्क में बेंच पर बतियाये
फिर किसी फूल के पास
तितली सा मंडराएं

मेले में खोए थे हम तब भी
और मेले में आज भी हैं मन भरमाए
चलो खेल सा खेलें इस जीवन को
फिर बिना वजह हम खिलखिलाएं

बाबू
बड़े हुए हम सो हुए
जीवन की पुलकित निश्छलता से
फिर एक बार चलो हम हाथ मिलाएं।

बचपन तो आएगा ना दोबारा
क्यूँ ना बस जरा सहज हो जाएं
और मुस्काएँ।

(November 14, 2019)

सोमवार, मार्च 25, 2019

अपन भी थे कभी कॉफी ☕

अपन भी थे कभी कॉफी ☕
हालांकि रहा वह भी नाकाफी
तो बन गए आदमी और पीने लगे कॉफी!

और और पीने लगे
और और जीने लगे

और और जीने लगे
और और पीने लगे
और और कॉफी

और जब न रहे काफी,  और और कॉफी
तो खुद की गहराईयों में उतारना पड़े काफी
ध्यान दिलाने को
कि अपन भी थे कभी कॉफी! ☕

(Coorg(coffee estate) - with Sushil on March 24th, 2019)

शुक्रवार, मार्च 01, 2019

गुज़र रहा है ये शहर

ट्रेन में हूँ,
कर रहा हूँ सफर
मैं ठहरा हूँ
गुज़र रहा है ये शहर

इन खेतों में
फिर उगेंगी नई फसलें
होगी फिर रात
नई सुबह और फिर दोपहर
मेरे भी जहन में
ये उम्र लेती करवटें
गुजर रही तमाम
सहर दर सहर

ओ मेरे हमगुज़र
इस गुज़रते शहर में
चल तू और मैं
दो घड़ी
अब जाएं कहीं ठहर।

(Train -somewhere in North India during Feb-March 2019)

अब है आपकी नजर

यह भी है अलवर
जो रहा सामने गुज़र
कभी था मेरा शहर 
अब है आपकी नजर