गुरुवार, अक्तूबर 02, 2014

मौत: कुछ मुक्तक

(एक)
जैसे मौत का समय होता है 
ऐसे ही ज़ुकाम का भी 
आती ही है 
मौसम बदलते ही 

याद दिलाने को
जीवन सिर्फ गति ही नहीं ठहराव भी  है 
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(दो)
अपने बचपन के शहरों से 
हम उखाड़ दिए जाते है 
गाजर, मूली की तरह 
बिना हमारी मर्ज़ी के 
जैसे 
जीवन बढ़ता / गुजरता है आगे 
मौत की तरफ - बिना हमसे पूछे 
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(तीन)
खण्डहरो को तोड़कर 
नए मकान बनाये हमने 
अपने ही पुरखो को भूलकर 
अपनी  अमरता के ख्वाब बुनते हुए 
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(चार)
मौत को नहीं जानते हम 
न कभी एक घड़ी रुककर कोशिश ही करते 

शायद इसीलिए फिर वो मौका भी न देती हो 
एक क्षण का भी 

रुककर उसे जानने का
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