गुरुवार, अक्तूबर 02, 2014

समझ और होश कुछ भी तो नहीं हैं

समझ और होश कुछ  भी तो नहीं हैं 
एकमात्र बेहोशी ही दवा है इस जीवन की 
लिखूंगा मै कवितायें बदस्तूर 

कौन रोकेगा मुझे ?


मौत: कुछ मुक्तक

(एक)
जैसे मौत का समय होता है 
ऐसे ही ज़ुकाम का भी 
आती ही है 
मौसम बदलते ही 

याद दिलाने को
जीवन सिर्फ गति ही नहीं ठहराव भी  है 
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(दो)
अपने बचपन के शहरों से 
हम उखाड़ दिए जाते है 
गाजर, मूली की तरह 
बिना हमारी मर्ज़ी के 
जैसे 
जीवन बढ़ता / गुजरता है आगे 
मौत की तरफ - बिना हमसे पूछे 
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(तीन)
खण्डहरो को तोड़कर 
नए मकान बनाये हमने 
अपने ही पुरखो को भूलकर 
अपनी  अमरता के ख्वाब बुनते हुए 
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(चार)
मौत को नहीं जानते हम 
न कभी एक घड़ी रुककर कोशिश ही करते 

शायद इसीलिए फिर वो मौका भी न देती हो 
एक क्षण का भी 

रुककर उसे जानने का
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मूसी महारानी की छतरी, अलवर

यही बैठता था मै 
संगमरमर के चबूतरे पर 
नीचे धरती पर  

आसमान खोजता 

बहुत पहले रहा होगा ऐसा कवि

बहुत पहले रहा होगा एक कवि 
एक पुराने शहर में 
एक बचपन के शहर में 
किसी और जमाने में 
किसी और जन्म में 
किसी और समय में 
किसी और सदी में 

बहुत पहले रहा होगा एक कवि 

सच कहू 
वो समय न रहा  
और वो जिजीविषा भी नहीं 
मर गया वो कवि 

अगली कई सदियों तक पता भी न चला 
उस कवि का 

आज फिर से जन्मा है वो

न जाने कब तक रहेगा ज़िंदा 
संवेदनाओ के अतिरेक के बिना 
उसे रोज़ाना चाहिए होंगी 
पीने के लिए संवेदनाए 
जीने के लिए हृदय
पूछने के लिए प्रश्न 
देने के लिए उत्तर 


बहुत पहले रहा होगा ऐसा कवि