शनिवार, सितंबर 02, 2006

ओ पंछियों

ओ पंछियों
क्यों आते हो तुम
और बनाते हो बसेरा
मेरे घर के बगल में खडे
इस ऊंचे से पेड पर
जबकि
तुम यह जानते हो कि
एक दिन तो सूख ही जाना है इसे
फिर किस पर
आ उडोगे तुम
फिर क्यों इस पर बसते और उजडते हो तुम
क्या इसका सूख जाना टालने के लिए ?

ओ पंछियों
ओ रंग बिरंगे पंछियों
सर्दियों की धूप में क्यों आते हो तुम
जबकि तुम यह जानते हो कि
मैं अपनी हर कमजोरी को पालता रहूंगा
दुनिया के दर्द को सालता रहूंगा
और यूं मेरा इस क्रम से कभी पीछा न छूटेगा
फिर क्यों आते हो तुम
क्या इस भ्रम को मुझसे निकाल पाने के लिए ?

ओ पंछियों
ओ मधुर कंठ गवईयों
क्यों आते हो तुम
मेरे घर के बगल में खडे इस ऊंचे से पेड पर
और फिर
क्यों छोड कर चले जाते हो तुम इसे
अपनी यादें इन गिलहरियों के कोटरों में भरकर
मैं
सीख लेना चाहता हूं
इन गिलहरियों से
इनके जीने का तरीका
जो तुम्हारे न होने के बावजूद
कभी, कहीं नहीं जाती इस पेड को छोडकर

ओ पंछियों
ओ मानवों की दुनिया से दूर
किसी और दुनिया के वाशिंदों
आओ बैठो
मेरी इस कामनासिक्त देह पर
और बनाओ अपना घर
आओ
इस पर बसो और इसे उजाड जाओ
इसे बसाने के लिए
ये अभी बाकी है
तुम्हारे मधुर गीत गुंजाने के लिए
आओ
कि ये अभी बाकी है
तुम्हारे यहां आकर चले जाने
और फिर वापस लौट कर आने के इंतज़ार में
रिक्त हो जाने के लिए ।

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Gud poem

Mahak ने कहा…

nice poem...

Unknown ने कहा…

good......very good